विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र को ‘एक देश–एक चुनाव’ का मंत्र


भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र है. जहां देश के
केन्द्रीय शासन के लिए लोकसभा और प्रान्तीय शासन के लिए विधानसभाओं के
पंचवार्षिक चुनाव का प्रावधान है । देश चूंकि बहुत बडा है इस कारण प्रायः
प्रति वर्ष किसी न किसी प्रांत में चुनाव होते रहता है जिससे सालों भर
चुनावी माहौल बना रहने के कारण एक ओर विकास-कार्य प्रभावित होते हैं तो
दूसरी ओर सरकारी खजाने को चुनावी खर्च की मार झेकनी पडती है । सभी चुनाव
अगर हर पांच-पांच साल पर एक साथ हों तो इन दोनों ही समस्याओं से निजात
पाया जा सकता है । केन्द्रीय लोकसभा और प्रान्तीय विधानसभाओं के चुनाव
एक साथ कराये जाने के प्रस्ताव पर देश में लंबे समय से बहस चल रही है ।
प्रधानमंत्री मोदी ने इस मुद्दे पर जोरदार पहल कर इसे आगे बढ़ाया है ।
अभी हाल ही में विधि आयोग भी इस बावत विभिन्न राजनीतिक दलों और
प्रशासनिक अधिकारियों की राय जानने के लिये उनका एक तीन दिवसीय सम्मेलन
आयोजित किया था , जिसमें कुछ दलों ने तो इसके प्रति सहमति जताई किन्तु
अधिकतर दलों ने इसका विरोध ही किया । विरोध करने वाले दलों के नेताओं
का कहना है कि यह एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव लोकतांत्रिक प्रक्रिया
के खिलाफ है । जाहिर है , जब तक इस प्रस्ताव पर आम राय नहीं बनती, तब तक
इसे धरातल पर उतारना संभव नहीं होगा ।
भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र है । लिहाजा यहां
प्रायः हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते ही रहते हैं । इससे न
केवल प्रशासनिक व नीतिगत निर्णयों का क्रियान्वयन प्रभावित होता है,
सरकारी खजाने पर भारी बोझ भी पड़ता है । इस सबसे बचने का एक मात्र उपाय
तो यही है कि ग्राम-पंचायतों व नगरपालिकाओं-निगमों को छोड कर देश की
लोकसभा व राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही कराये जांए । यह कोई
नया विचार-प्रस्ताव नहीं है । अपने देश में लोकतंत्र की स्थापना के
शुरुआती दौर में इन दोनों ही व्यवस्थापिका-सभाओं के चुनाव एक साथ ही हुआ
करते थे । सन १९५२, १९५७, १९६५, १९६७ में, अर्थात चार-चार बार ऐसा हो
चुका है, और सफलतापूर्वक हुआ है । यह क्रम तब टूटा, जब सन १९६८-६९ में
कुछ राज्यों की विधानसभाएं कतिपय कारणों से समय-पूर्व ही भंग कर दी गई
थीं । ऐसे में सवाल यह उठता है कि तब जब कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी
, तो अब एक साथ चुनाव कराने से लोकतंत्र का क्या नुकसान हो जाएगा ?
एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव देश के लिए हितकारी भी है और
विकासोन्मुखी भी । क्योंकि, लगभग हर साल किसी न किसी प्रान्त में होते
रहने वाले चुनावों के कारण देश के सम्बन्धित प्रदेशों में बार-बार आदर्श
आचार संहिता लागू करनी पड़ती है । इसकी वजह से सरकार आवश्यक नीतिगत निर्णय
नहीं ले पाती और विकास की तमाम योजनाओं का क्रियान्वयन भी अधर में लटक
जाती हैं, जिससे अन्ततः नुकसान तो जनता को ही होता है । भिन्न-भिन्न
प्रदेशों में अलग-अलग समय पर चुनाव होने से जनता की गाढी कमाई से निर्मित
सरकारी खजाने का एक प्रकार से दुरुपयोग ही होता है । इससे विकास-योजनायें
भी प्रभावित होती हैं और महंगाई भी बढ जाती है । जबकि एक ही साथ चुनाव
कराये जाने पर एक ही खर्च में देश-प्रदेश की चुनावी प्रक्रियायें सम्पन्न
हो जाने से उस धन की बर्बादी रुक सकती है । इस उपाय से काले धन के सृजन
और भ्रष्टाचार के प्रचलन पर बहुत हद तक काबू पाया जा सकता है । यह तो
सर्वविदित है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा
चन्दा के नाम पर मोटी-मोटी राशि की जो हेरा-फेरी की जाती है, उससे कालाधन
ही निर्मित होता है । यद्यपि चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों के लिए चुनावों
में किये जाने वाले खर्च की सीमा का निर्धारण कर रखा है, तथापि उन
प्रत्याशियों के सम्बन्धित दलों के लिए चुनावी-खर्च की कोई सीमा
निर्धारित नहीं की गई है । ऐसे में कालाधन बटोरने-खरोचने की प्रक्रिया
लगातर चलती रहती है ।
इसी तरह, लगभग हर साल चुनाव होते रहने से राजनीतिक दलों व
राजनेताओं को एक-दूसरे के पक्ष-विपक्ष में जनमत आकर्षित करने के बावत
जातीयता का विष-वमन करने अथवा अन्य संवेदनशील मसलों को उभारने में सक्रिय
हो जाना पडता है, जिससे सामजिक समरसता भंग होते रहती है । किन्तु पांच
साल पर एक ही साथ चुनाव कराये जाने से ऐसे अवांछित अवसर हर साल तो
उत्पन्न नहीं ही होंगे । इसका एक और लाभ यह है कि सरकारी कर्मचारियों और
सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी कार्यों पर लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी ।
इससे उनका समय बचेगा, तो उनके मूल कार्यों के क्रियान्वयन में बाधायें
उत्पन्न नहीं होंगी । आज तो चुनाव कराने के लिये स्कूली शिक्षकों और
सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों का जो प्रतिनियोजन किया जाता है उसके
परिणामस्वरुप महीनों तक स्कूलों में पढाई-लिखाई बाधित हो जाती हैं और
अन्य कार्य भी प्रायः ठप्प ही हो जाया करते हैं ।
‘एक देश एक चुनाव’ के विरोध में जो तर्क दिया जा रहा है कि
यह देश के संघीय ढाँचे के विपरीत और संसदीय लोकतंत्र के लिये घातक होगा,
उसमें कोई दम नही है । लोकसभा और विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने पर
अधिक से अधिक सिर्फ एक बार कुछ विधानसभाओं के कार्य-काल उनकी निर्धारित
सीमा के आगे या पीछे करने पड सकते हैं, जिससे राज्यों की स्वायत्तता कतई
प्रभावित नहीं हो सकती; क्योंकि जिन प्रदेशों में एक बार या दो बार
राष्ट्रपति शासन लागू हो चुके हैं, वहां की स्वायतता आज तक मरी नहीं है
कह कभी । एक साथ चुनाव के विरोध में एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि ऐसा
होने पर राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाने अथवा
क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दों का महत्व कम हो जाने की
स्थिति उत्पन्न हो सकती है । किन्तु यह तर्क भी निराधार है , क्योंकि
लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव के मुद्दे स्वाभाविक ही भिन्न –भिन्न
होते हैं और हमारे देश के मतदाता अब इतने जागरुक जरूर हो चुके हैं कि वे
राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दों में भेद कर तदनुसार प्रत्याशियों व दलों के
पक्ष-विपक्ष में मतदान कर सकते हैं । एक साथ चुनाव के विचार का विरोध
करने वालों का यह जो कहना है कि अलग-अलग समय पर चुनाव होते रहने से
जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति लगातार जवाबदेह बने रहना पड़ता है,
क्योंकि उन्हें छोटे-छोटे अंतरालों पर किसी न किसी चुनाव का सामना करना
पड़ता है , सो बेकार की बात है ; क्योंकि जन-प्रतिनिधियों में
कर्त्तव्य-बोध केवल चुनावी पेंच के कारण ही पैदा नहीं किया जा सकता है ।
‘एक देश एक चुनाव’ की अवधारणा में कोई बड़ी खामी नहीं है, किन्तु
राजनीतिक दलों द्वारा जिस तरह से इसका विरोध किया जा रहा है, उससे लगता
है कि इसे निकट भविष्य में सर्वानुमति से लागू कर पाना संभव नहीं है ;
जबकि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत चुनावी बाढ में डुबता हुआ नजर
आ रहा है । इस अनापेक्षित चुनावी बाढ से देश को उबारने के लिए ‘एक साथ
चुनाव’ की व्यवस्था लागू करनी ही होगी । यदि हमारे देश में ‘एक देश में
एक कर-प्रणाली’, अर्थात ‘जीएसटी’ लागू की जा सकती है, तो ‘एक देश – एक
चुनाव’ की व्यवस्था भी अवश्य ही लागू की जा सकती है । इसका विरोध कुछ
राजनीतिक दल सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि उनके राजनेताओं को चुनावी
दांव-पेंच का खेल खेलने में असुविधा हो सकती है । उन्हें देश-हित से कोई
लेना-देना नहीं है । बावजूद इसके देश का जन-मानस प्रधानमंत्री मोदी के इस
प्रस्ताव के साथ है और आम मतदाताओं की भी यही अपेक्षा है; क्योंकि हर
वर्ष होते रहने वाले चुनावों से अन्ततः मतदाता ही तो प्रभावित होते हैं ।
ऐसे में मतदाताओं की अपेक्षा के अनुरुप समस्त भारत में ‘एक देश – एक
चुनाव’ की व्यवस्था अगर लागूं हो जाएगी. तो यह दुनिया के सबसे बडे
लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने वाला एक मंत्र सिद्ध होगा ।
• मनोज ज्वाला; नवम्बर’ २०२०