व्याकरण वह विद्या है , जिससे वयक्ति किसी भाषा में शुद्ध-शुद्ध लिखने-पढने एवं बोलने सम्बन्धी विधि-व्यवहार सिखता है । व्याकरण कला व विज्ञान, दोनों है और इससे भी बढ कर वह किसी भाषा का सम्पूर्ण विधान ही है । हर भाषा का अपना-अपना व्याकरण होता है । अंग्रेजी भाषा के व्याकरण को ग्रामर कहते हैं ; अर्थात व्याकरण को अंग्रेजी में ग्रामर कहते हैं । वैसे तो किसी भाषा का व्याकरण उस भाषा के व्यवहार की विधियों का संकलन मात्र है; किन्तु रिलीजियस विस्तारवाद के झण्डाबरदार अंग्रेजों और चर्च-मिशन के धूर्त्त पादरियों ने अपने हिसाब से एक व्याकरण रच-गढ कर उसे भोले-भाले दक्षिण भारतीयों के ‘ख्रिस्तीकरण’ तथा आर्य-आब्रजन आख्यान के प्रतिपादन से वृहतर भारतीय समाज (हिन्दू) के विभाजन एवं द्रविड आन्दोलन के तर्क-सृजन और कालान्तर बाद धर्म (सनातन) के उन्मूलन का माध्यम बना डाला । जी हां, व्याकरण से ऐसे-ऐसे अनर्थकारी षड्यंत्रपूर्ण आयोजनों को क्रियान्वित किया । मैं बात कर रहा हूं ‘ए ग्रामर ऑफ तेलगू लैंग्वेज’ (तेलगू भाषा के व्याकरण) एवं ‘ए कॉम्परेटिव ग्रामर ऑफ द्रवीडियन लैंगुएज ऑर साउथ इण्डियन फैमिली लैंगुएज’ (द्रविड भाषा या दक्षिण भारतीय भाषा-परिवार का तुलनात्मक अध्ययन) की । व्याकरण की ये दोनों पुस्तकें ब्रिटिश-अंग्रेजी प्रशासकों-हुक्मरानों और ख्रिस्ती-पादरियों ने परस्पर दुरभि-संधि कर लिखी हुई हैं ।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कंधे पर सवार हो कर भारत आये रिलीजियस विस्तारवाद के झण्डाबरदारों के उपरोक्त षड्यंत्र-प्रपंच कितने गहरे व कितने व्यापक हैं और एक-दूसरे से कितने अभिन्न हैं, इसका सहज अनुमान आप इसी एक तथ्य से लगा सकते हैं कि फ्रांसिस वाइट एलिस नामक ब्रिटिश कलक्टर (तत्कालीन मद्रास जिला के कलक्टर) ने दक्षिण भारतीय भाषाओं को एक पृथक भाषा-परिवार में वर्गीकृत करने का प्रस्ताव पेश किया, तो उसी के एक तत्सम्बन्धी कथित शोध-पत्र को आधार बना कर अलेक्जेण्डर डी० कैम्पबेल (मद्रास कॉलेज ऑफ फॉर्ट सेण्ट जॉर्ज के सुपरिण्टेण्डेण्ट) नामक ब्रिटिश एडमिंस्ट्रेटर ने ‘ ए ग्रामर ऑफ तेलगू लैंग्वेज’ (तेलगू भाषा का व्याकरण) लिख कर यह स्थापित-प्रचारित कर दिया कि यद्यपि तमाम भारतीय भाषायें संस्कृत से उपजी हुई हैं, तथापि दक्षिण भारतीय भाषाओं- तमिल, तेलगू , कन्नड, मलयालम का संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है । मालूम हो कि वाइट एलिस ने ही वर्ष 1816 में अलेक्जेंडर डंकन कैंपबेल के उक्त तेलुगु व्याकरण के लिए ‘नोट टू इंट्रोडक्शन’ लिखा था, जिसमें उसने दक्षिण भारतीय भाषाओं के एक अलग ‘भाषा परिवार’ बनाने वकालत की थी ।
फिर तो वाइट एलिस व डी० कैम्पबेल की शह पर ऐंलिकन चर्च के पादरी-विशप- रॉबर्ट कॉल्ड्वेल ने मिशनरी योजना के त हत कुमारिल भट्ट नामक महान विद्वान ब्रह्मण-रचित संस्कृत-ग्रंथ- ‘तंत्र वर्तिका’ में प्रयुक्त हुए ‘द्रविड’ शब्द के आधार पर मिशनरी योजना के तहत दक्षिण भारतीय भाषाओं के लिए ‘द्रविडियन’ शब्द गढ कर उन्हें संस्कृत-परिवार से बाहर उस ‘हिब्रू’ भाषा के निकटस्थ घोषित कर दिया, जो बाइबिल की मूल भाषा है । कॉल्ड्वेल ने वर्ष 1856 में ‘द्रविड भाषाओं , अर्थात दक्षिण भारतीय भाषा-परिवार का तुलनात्मक व्यकरण’ (ए कॉम्परेटिव ग्रामर ऑफ द्रवीडियन लैंगुएज ऑर साउथ इण्डियन फैमिली लैंगुएज) लिख कर उसके माध्यम से ‘द्रविड’ को विश्व का एक प्रमुख ‘भाषा समूह’ होने का दावा पेश करते हुए तमाम दक्षिणी भाषाओं को संस्कृत से असम्बद्ध बताने और इसी आधार पर संस्कृत-भाषी ब्राह्मणों एवं गैर-संस्कृत भाषी लोगों के बीच ‘आर्य-द्रविड’ नामक विभेद कायम करने का एक अभियान ही चला दिया । व्याकरण की इस पुस्तक से उसने हिन्दू-धर्म-समाज में ‘द्रविड-पृथकतावाद’ के लिए धर्मशास्त्रीय आधार स्थापित कर दिया और उसके साथ ही चर्च-मिशनरियों के हाथ में हिन्दू आध्यात्मिकता से तमिलों को असम्बद्ध कर उनके ख्रिस्तीकरण (ईसाइकरण) को नैतिक सिद्ध करने का तर्क प्रस्तुत कर दिया ।
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के कारिंदों और चर्च के विशपों-पादरियों को दक्षिण भारत के किसी भाषा का व्याकरण लिखने और तमाम दक्षिण भारतीय भाषाओं के संस्कृत से संबंध-विच्छेद करने की जरूरत आखिर क्यों पड़ी ? जाहिर है – उन भारतीयों की एक पृथक सभ्यता के तौर पर पृथक पहचान गढ़ने तथा आर्य-वैदिक-हिन्दू धर्म-सभ्यता-संस्कृति से उन्हें अलग-थलग करने और उन्हें ‘रिलीजन’, अर्थात ‘क्रिश्चियनिटी’ के आवरण से आवृत करने के लिए । दरअसल, एलिस-कैम्पबेल की पुस्तक ने ही भारत के आन्तरिक सामाजिक राजनीतिक ढांचों में बाद के युरोपियन-अमेरिकन रिलीजियस हस्तक्षेप के लिए दरवाजा खोल दिया । इसने तर्क दिया कि तमिल और तेलगू का पूर्वज एक ही था, जो ‘गैर-संस्कृत’ था । बाद में उसी दरवाजे से मैक्समूलर जैसे भाडे के अनुवादक, जिसने वेदों का मनमाना अनुवाद कर एक सुनियोजित अनर्थ बरपाया, उसके साथ पश्चिमी ‘नस्लविज्ञान’ का प्रवेश हुआ; जो समूचे दक्षिण भारत में आर्य बनाम द्रविड, उतर बनाम दक्षिण, गोरे बनाम काले और ब्राह्मण बनाम गैर-ब्राह्मण के नाम पर सामाजिक-राजनीतिक विभाजन का विष-वमन करते हुए ‘द्रविड आन्दोलन’ ही खडा कर दिया । कालान्तर बाद उस द्रविड-आन्दोलन के सम्बन्ध में मदुरै के आर्कबिशप ने 1950 के दशक में अपनी पुस्तक में लिखा था, द्रविड़ आंदोलन ‘टाईम बम’ है, जिसे चर्च ने हिंदू धर्म को नष्ट करने के लिए तमिलनाडु में लगाए रखा है ।
सचमुच वह ‘द्रविडवाद’ एक प्रकार का ‘टाईम बम’ ही था, जो दक्षिण भारत में अब रह रह कर विस्फोट कर रहा है । तमिलनाडू राज्य की सरकार के एक मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने सार्वजनिक रुप से यह घोषणा कर रखी है कि “सनातन धर्म को नष्ट करना है, क्योंकि यह एक बीमारी है और यह भी कि द्रविड आन्दोलन की शुरुआत सनातन धर्म को नष्ट करने के लिए ही हुई थी ।” दरअसल तमिलनाडू में सनातन धर्म एवं ब्राह्मण वर्ण और हिन्दी भाषा का विरोध लगभग एक सौ वर्ष पहले से ही होता रहा है तथा इसके पीछे चर्च-संचालित ‘आर्य-द्रविड-विभेद आधारित राजनीति की पृष्ठ्भूमि कायम रही है, जिसकी शुरुआत ई०वी० रामासामी पेरियार की अगुवाई में हुई थी और अन्नादुरई ने उसे ‘द्रविड आन्दोलन’ के रुप में राजनीतिक आकार-विस्तार प्रदान किया था । अगर उस मंत्री के उपरोक्त बयान पर गौर करें , तो उसमें भी उसी राजनीति की छाप दिखाई पडती है । उदयनिधि स्टालिन ने चेन्नई में एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था- “कुछ चीजें ऐसी हैं, जिन्हें हमें सिर्फ खत्म करना है, केवल विरोध नहीं । मच्छर डेंगू कॉरोना व मलेरिया ऐसी चीजें हैं, जिनका हम केवल विरोध नहीं कर सकते, उन्हें तो हमें खत्म ही कर देना चाहिए । सनातन धर्म भी ऐसी ही चीज है , सनातन का विरोध नहीं बल्कि उसका उन्मूलन ही कर देना हमारा पहला काम है ।” इतना ही नहीं, उसने यह भी कहा कि “हम अपनी बात पर कायम हैं और किसी भी कानूनी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं. हम द्रविड़ भूमि से सनातन धर्म को हटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और इससे एक इंच भी पीछे नहीं हटने वाले.”
गौरतलब है कि आज के दक्षिण भारत में सक्रिय वहां की दोनों राजनीतिक पार्टियों- डी०एम०के०(द्रविड मुन्नेत्र कडगम) और ए०आई०डी०एम०के० (अखिल भारतीय द्रविड मुन्नेत्र कडगम) की राजनीति ‘गैर-ब्राह्मणवाद’ नामक एक ऐसी विभाजक अवधारणा पर टिकी हुई है, जिसका उद्देश्य चर्च की उस विभाजनकारी योजना को क्रियान्वित करना है, जिसके निशाने पर भारत राष्ट्र व सनातन धर्म एवं वृहतर हिन्दू समाज ; तीनों एक साथ हैं । मालूम हो कि ईसाई-विस्तारवाद के विभिन्न झण्डाबरदारों द्वारा ‘आर्य-द्रविड’ विभाजन का बीजारोपण कर देने के पश्चात उनके राजनीतिक अभिकर्ताओं ने अंग्रेजी शासन-विरोधी स्वतंत्रता-आंदोलन के दौरान ही दक्षिण भारत के तमिलनाडू प्रदेश को भारत से पृथक पाकिस्तान की तर्ज पर ‘द्रविडस्तान’ नामक अलग देश बनाने का एक आन्दोलन चलाया हुआ था , जो आज भी किसी न किसी रूप में छद्म तरीके से चल ही रहा है । वहां की दोनों मुख्य राजनीतिक पार्टियां (डीएमके व एआईडीएमके) चर्च-मिशन की ‘आर्य-द्रविड’ विभाजक नीतियों से युक्त एक ही वैचारिक पृष्ठभूमि की ऊपज हैं ; जो ब्राह्मण, संस्कृत व हिन्दी के विरोध का स्थाई अभियान चलाते रहती हैं और भारत राष्ट्र के विखण्डन एवं भारतीय राष्ट्रीयता, अर्थात सनातन धर्म के उन्मूलन को प्रवृत दिखती हैं । उदयनिधि की उपरोक्त घोषणा से रिलीजियस (ख्रिस्ती/ईसाई) विस्तारवादी शक्तियों की यह गुप्त योजना एक बार फिर प्रकट हुई है । राज्य सरकार का एक मंत्री अगर खुलेआम ऐसी घोषणा करता हो, तो इससे यह समझा जा सकता है कि वहां के सरकारी तंत्र का इस्तेमाल सनातन हिन्दू धर्म-समाज के विरुद्ध किस कदर होता रहा होगा और आगे भी किस बेशर्मी से होता रहेगा ।
राज्य की शासनिक सत्ता का ऐसा सहयोग-संरक्षण पा कर वेटिकन-संचालित चर्च-मिशनरियों के तमाम तमिल प्यादे-पादरी सब अति उत्साहित हैं । उनका यह कहना-मानना अब तो बिल्कुल सही प्रतीत होता है कि “द्रविड-आंदोलन ‘टाईम बम’ है- हिन्दुत्व के खिलाफ ।” जाहिर है, इस ‘टाईम बम’ का निर्माण मैकॉले-मैक्समूलर-कॉल्ड्वेल व विलियम जोन्स की चौकडी द्वारा उत्पादित आर्य-द्रविड विभेदों एवं भाषा विज्ञान व नस्ल विज्ञान के अनर्थकारी सिद्धांतों की दुरभिसंधि से हुआ है । इसका संचालन-सूत्र (रिमोट कण्ट्रोल) वेटिकन-संचालित चर्च के बुद्धिबाजों की उस चौकड़ी के हाथों में है , जिसने ‘आर्य-द्रविड’ विभेद पैदा कर समूचे दक्षिण भारत में आर्य-वैदिक-हिन्दू धर्म-संस्कृति के विरुद्ध ‘द्रविड-आंदोलन’ नामक ‘क्रिश्चियन-विस्तारवाद’ का अभियान चला रखा है और इस बावत उपरोक्त दोनों राजनीतिक पार्टियों के नेतृत्व को अपना ‘हस्तक’ व ‘विस्फोटक’ बना रखा है, । तथाकथित ‘द्रविड आन्दोलन’ के प्रणेता पेरियार व अन्ना दुरई हों, या उनके बाद उसे राजनीतिक विस्तार देने वाले करुणानिधि व जे०जयललिता अथवा उनके उतरवर्ती मुख्यमंत्री- एम०के०स्टालिन या मंत्री उदयनिधि स्टालिन , सभी उस वेटिकन सिटी से संचालित चर्च के हस्तक ही रहे हैं । यही कारण है कि तमिलानाडू में चर्च-मिशनरियों के कारिंदों की तूती बोलती है और उनकी जुबान सनातन हिन्दू धर्म के विरुद्ध सदैव घृणा उगलती रहती हैं ।
जाहिर है- इस विखण्डनकारी षड्यंत्र के मूल में युरोपियन-औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा प्रायोजित ‘ए ग्रामर ऑफ तेलगू लैंग्वेज’ (तेलगू भाषा के व्याकरण) एवं ‘ए कॉम्परेटिव ग्रामर ऑफ द्रवीडियन लैंगुएज ऑर साउथ इण्डियन फैमिली लैंगुएज’ (द्रविड भाषा या दक्षिण भारतीय भाषा-परिवार का तुलनात्मक अध्ययन) नामक व्याकरण-पुस्तकों से फैलायी गई भ्रांतियों की भूमिका जबरदस्त है । ऐसे में भारत सरकार को चाहिए कि वह भारतीय मन-मानस के भाषाविदों से तेलगु-तमिल-कन्नड आदि भाषाओं के वास्तविक व्याकरण की रचना करा कर उन्हें शिक्षण-संस्थानों में स्थापित कराये और अभारतीय औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा प्रायोजित व्याकरण को उनके शैक्षणिक-पाठ्यक्रमों से निष्कासित करे-कराये । यह काम केवल सरकारी तंत्र से ही सम्भव नहीं है, अपितु इसके लिए भारतीय राष्ट्रवाद का पोषण करने वाली संस्थाओं और उनसे सम्बद्ध भाषाविदों को भी आगे आना होगा ।
* मनोज ज्वाला; नवम्बर’ २०२५
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